हिंदू धर्म में एक निर्गुण (अतीत और अव्यक्त) ब्रह्म (भगवान) की पूजा और प्रार्थना के लिए ईश्वर (सगुण ब्रह्म) की विभिन्न शक्तियों (बिभूतियों) के कई नामों का उपयोग (One God with many names in Hinduism) Hitskin_logo Hitskin.com

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हिंदू धर्म में एक निर्गुण (अतीत और अव्यक्त) ब्रह्म (भगवान) की पूजा और प्रार्थना के लिए ईश्वर (सगुण ब्रह्म) की विभिन्न शक्तियों (बिभूतियों) के कई नामों का उपयोग (One God with many names in Hinduism)

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 हिंदू धर्म में एक निर्गुण (अतीत और अव्यक्त) ब्रह्म (भगवान) की पूजा और प्रार्थना के लिए ईश्वर (सगुण ब्रह्म) की विभिन्न शक्तियों (बिभूतियों) के कई नामों का उपयोग (One God with many names in Hinduism) Empty हिंदू धर्म में एक निर्गुण (अतीत और अव्यक्त) ब्रह्म (भगवान) की पूजा और प्रार्थना के लिए ईश्वर (सगुण ब्रह्म) की विभिन्न शक्तियों (बिभूतियों) के कई नामों का उपयोग (One God with many names in Hinduism)

Post by Seva Lamberdar Yesterday at 9:17 am

ऋग्वेद के निम्नलिखित श्लोकों से स्पष्ट है कि एक ब्रह्म (ईश्वर) को कई नामों से जाना जाता है;

"उसे इंद्र, मित्र, वरुण, अग्नि कहते हैं, और वह कुलीन गरुतमान है; जो एक है, उसके लिए ऋषि कई उपाधियाँ देते हैं, वे इसे अग्नि, यम, मातरिश्वन कहते हैं।" ऋग्वेद (मंडल / भाग 1, श्लोक 164.46);

"उसकी महाशक्ति द्वारा सृष्टि के आदि में उत्पादन और पूजा का आरंभ हुआ; वह भगवान है, और उसके अलावा कोई नहीं --- हम अपने यज्ञ से किस भगवान की आराधना करें?" ऋग्वेद (मंडल / भाग 10, श्लोक 121.8 )।

क्योंकि ब्रह्म बास्तव में निर्गुण (गुणों से रहित: निराकार, अव्यक्त और समझ से परे) है, जिस कारण उसकी पूजा और प्रार्थना असंभव है l इस लिए लोग निर्गुण ब्रह्म के बदले उसको सगुण ब्रह्म या ईश्वर (विश्व के निर्माता और शासक) मानकर उसकी विभिन्न नामों --- जो ईश्वर की विभिन्न दिव्य शक्तियों / विभूतियों की प्रतीक हैं, जैसे कि नाम अग्नि, इंद्र, सवित्र, सूर्य, भगवान, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, देवी, भगवती, वरुण, विश्वकर्मा आदि --- द्वारा पूजा और प्रार्थना करते हैं l उदाहरण के लिए,  वरुण नाम/शीर्षक, जिसका अर्थ जल का स्वामी है, सृष्टि में ईश्वर की जल शक्ति को दर्शाता है। 

ईश्वर (भगवान) के ध्यान, प्रार्थना और पूजा के दौरान ईश्वर के लिए उपयोग किया जाने वाला व्यक्तित्व (या प्रतीक, नाम आदि) मुख्य रूप से आध्यात्मिक महत्व के लिए और भगवान (ईश्वर) की वास्तविक शक्ति (विभूति) को प्रतिबिंबित करने के लिए होता है। असली भक्ति और पूजा की बिधि भक्त/उपासक की प्रकृति, आवश्यकता, स्वभाव और स्थिति के अनुसार हैं ।

उदाहरण के लिए, एक किसान स्वाभाविक रूप से वरुण (भगवान का नाम पानी के अधिकारी के रूप में) नाम द्वारा ईश्वर की पूजा और प्रार्थना करता है, क्योंकि वह अच्छी फसल के लिए पानी को बहुत महत्वपूर्ण मानता है और इस कारण बह ईश्वर को वरुण नाम द्वारा याद करता है और प्रार्थना और पूजा करता है।

इसी तरह, एक बढ़ई (मरम्मत करने वाला और चीजों का निर्माण करने बाला आदमी) ईश्वर के नाम विश्वकर्मा (विश्व के वास्तुकार और निर्माता) का उपयोग करके ईश्वर की पूजा और प्रार्थना करता है।

किसान द्वारा वरुण नाम का उपयोग करके और बढ़ई द्वारा विश्वकर्मा नाम का उपयोग करके ईश्वर की पूजा एक ही है, और उन पूजा और प्रार्थनाओं से अर्जित लाभ भी बराबर हैं । इसका अर्थ है कि योगात्मक/संचयी रूप से परिणाम (लाभ आदि) में कोई अंतर नहीं है, चाहे पूजा / प्रार्थना में एक दिव्य नाम (वरुण, या विश्वकर्मा) या दोनों नामों (वरुण और साथ ही विश्वकर्मा) का उपयोग हो।

चूँकि ब्रह्म की निर्गुण के रूप में पूजा सीधे और शारीरिक रूप से संभव नहीं है, इस लिए भक्त, या पूजा के इच्छुक, को चाहिए की बह संपूर्ण सृष्टि को ईश्वर के प्रतिबिंब के रूप में देखे तथा पहचाने और तदनुसार आध्यात्मिकता और विश्वास करता हुआ सृष्टि के साथ एक हो कर रहे और कार्य करे ... (भगवत गीता: अध्याय 12) l

इसके बदले, सगुण ब्रह्म या ईश्वर (विश्व के निर्माता तथा शासक और सृष्टि में प्रासंगिक) के रूप में ब्रह्म की पूजा / प्रार्थना दो प्रकार की है: प्रथ्म प्रकार की पूजा / प्रार्थना व्यक्तिगत ईश्वर के लिए है जो अन्तर्निहित (अंतर्यामी के रूप में) है , और दूसरी प्रकार की पूजा / प्रार्थना में अन्य प्रतीकों का उपयोग करके (ईश्वर जब अपने से बाहर / दूर सोचा जाये) l

अन्तर्निहित के मामले में, पूजा आमतौर पर शुद्ध ध्यान के रूप में और आध्यात्मिक स्तर पर होती है। इसके विपरीत, जब उपासक ईश्वर को अपने से बाहरी / दूर मानता है तो पूजा प्रतीकात्मक (प्रतीकों का उपयोग करके) होती है।

बाहरी पूजा में उपयोग किए जाने वाले प्रतीक (वस्तुएं और स्वरुप आदि) आम तौर पर प्राकृत होते हैं (प्रकृति से युक्त, जिसमें तीन गुण शामिल होते हैं - सत्व, रजस और तमस)। ध्यान दें, इस मामले में उपासक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि आराधना की वस्तु या साधन (जैसे कि पूजा/प्रार्थना में प्रतीक, स्वरुप आदि) और पूजा की विधि (यज्ञ, प्रार्थना आदि) का क्या अर्थ और महत्व है, क्योंकि उसी (पूजा/प्रार्थना के साधन और विधि) से परिणाम (पूजा/प्रार्थना का फल आदि) निर्थारित होगा l

आराधना (ध्यान / पूजा / प्रार्थना) की वस्तु , उद्देश्य या साधन (जैसे कि पूजा/प्रार्थना में प्रतीक या स्वरुप आदि) कर्म के नियम (परिवर्तनशीलता) से परे या ऊपर होना चाहिए, और इसे आत्मा या घटक पदार्थ के रूप में संसार / प्रकृति का हिस्सा नहीं बनना चाहिए और इसे अंधकार या अज्ञान (तमस) की अवस्था में मौजूद नहीं होना चाहिए। ध्यान दें कि केवल ब्रह्म (भगवान / ईश्वर) ही कर्म के नियम से ऊपर और परे है, अपरिवर्तनशील है, और इन शर्तों को पूरा करता है (भगवद गीता: अध्याय 5 - श्लोक 29)।

इसके विपरीत, यदि आराधना (ध्यान / पूजा / प्रार्थना) की वस्तु , उद्देश्य या साधन किसी गौण व्यक्तित्व (जैसे कि पेड़, पक्षी, जानवर, मानव, गुरु आदि) के लिए हो जो कर्म के नियम के अधीन है तथा परिवर्तनशील है, तो परिणाम गौण और कम मूल्य के होंगे (भगवद गीता: अध्याय 9 - श्लोक 25) l

संदर्भ: सुभाष सी. शर्मा, "वैदिक व्यवसाय (हिंदू जातियां) आनुवंशिकता (जन्म) से संबंधित नहीं थे: (नोट - 1: ब्रह्म / भगवान), " (बर्ष) 2001https://www.oocities.org/lamberdar/_caste.html




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