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वेदांत सूत्र और वेदांत (उपनिषदों का सार*) ... Vedanta Sutra and the Vedanta (the essence of Upanisads*)

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वेदांत सूत्र और वेदांत (उपनिषदों का सार*) ... Vedanta Sutra and the Vedanta (the essence of Upanisads*)  Empty वेदांत सूत्र और वेदांत (उपनिषदों का सार*) ... Vedanta Sutra and the Vedanta (the essence of Upanisads*)

Post by Seva Lamberdar Sat Oct 19, 2024 8:19 am

(क) परिचय :

प्रारंभिक मनुष्यों ने संचित ज्ञान को वेद कहकर संकलित किया, जिसने परम वास्तविकता को तीन भागों में माना: ब्रह्म (भगवान या ईश्वर), आत्मा (पुरुष) और संसार (प्रकृति, जिसमें शरीर, बुद्धि, अहंकार और मन भी शामिल हैं)।

मीमांसा एक हिंदू दार्शनिक प्रणाली है जो विश्लेषण (analysis) और अन्वेषण (inquiry) करती है कि वास्तविकता के तीन भाग - ब्रह्म, आत्मा और दुनिया - एक दूसरे से कैसे संबंधित हैं और एक दूसरे को कैसे प्रभावित करते हैं।

मीमांसा के दो भाग हैं: पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा। पूर्व मीमांसा, या मीमांसा, पहले वाली (पुरानी) प्रणाली है, जो ब्रह्म (भगवान या ईश्वर) और सेवा के कार्यों (प्रसाद और पूजा आदि) से संबंधित है। पूर्व मीमांसा (या कर्म मीमांसा) वेद द्वारा निर्दिष्ट कर्तव्यों (कार्यों) की जांच करता है और साथ ही उनसे जुड़े फलों की।

उत्तर मीमांसा (जिसे वेदांत के रूप में भी जाना जाता है) में ब्रह्म (भगवान या ईश्वर) की प्रभुता पर ज्यादा जोर और बिचार है, जैसे पहले ब्रह्म (भगवान या ईश्वर) का महत्व और फिर सृष्टि (आत्मा और संसार, यानि पुरुष और प्रकृति)।

"वेदांत" का शाब्दिक अर्थ है "वेद का अंत या अंतिम भाग ", या वेदों के अंतिम अध्यायों में निर्धारित सिद्धांत, जो उपनिषद हैं। उपनिषदों के विचार भी "वेद का अंतिम उद्देश्य" या वेदों का सार हैं।

वेदांत सूत्र, या वेदांत के सिद्धांत, को ब्रह्म सूत्र भी कहा जाता है, क्योंकि यह ब्रह्म (भगवान या ईश्वर) के सिद्धांत की व्याख्या है । और वेदांत सूत्र को सारिरका सूत्र भी कहते हैं, क्योंकि यह बेदाग आत्मा (unconditioned soul) के मूल / आरम्भ से संबंधित है।

उत्तर मीमांसा उपनिषदों में विभिन्न धर्म-दार्शनिक विचारों को शामिल करने वाली आलोचनात्मक (critical) जांच और चर्चा है। ध्यान दें, उपनिषद विभिन्न दृष्टिकोणों से सत्य पर नज़र डालने की एक श्रृंखला है, न कि लगातार महान प्रश्नों पर विचार करने का प्रयास।

बादरायण (कुछ विद्वानों के अनुसार, व्यास) ने वेदांत सूत्र या ब्रह्म सूत्र (जिसमें 550 सूत्र या aphorism शामिल हैं जो शायद बादरायण के संकलित करने से पहले भी लंबे समय से विकास में थे) के माध्यम से उपनिषदों के इस ज्ञान को व्यवस्थित करने का प्रयास किया था।

एक सुसंगत संपूर्णता के रूप में बादरायण की कृति (वेदांत सूत्र) एक धर्मशास्त्रीय व्याख्या है। यह भगवान, संसार, आत्मा की भटकन और मुक्ति की स्थितियों के बारे में उपनिषद की शिक्षाओं की जांच करता है; सिद्धांतों में स्पष्ट विरोधाभासों को दूर करता है; और उन्हें व्यवस्थित रूप से एक साथ बांधता है।

(ख) आध्यात्मिक दृष्टिकोण :

वेदांत सूत्र के अनुसार, पुरुष (आत्मा) और प्रकृति (संसार: शरीर आदि) स्वतंत्र पदार्थ नहीं हैं, बल्कि एक ही वास्तविकता (Reality) के संशोधन (modifications) हैं। सच्चे अनन्तों (true infinites) की बहुलता संभव नहीं है। एक अनंत पदार्थ है ब्रह्म (ईश्वर, भगवान) जिसकी बारीकी पहचान उपनिषदों में वर्णित उच्चतम वास्तविकता से की गयी है। वेदांत सूत्र में चार अध्याय हैं जिनकी नीचे (1 - 4) संक्षेप में चर्चा की गई है।

(1) वेदांत सूत्र का पहला अध्याय केंद्रीय वास्तविकता के रूप में ब्रह्म के सिद्धांत से संबंधित है। इसमें ब्रह्म (भगवान या ईश्वर) की प्रकृति, विश्व और व्यक्तिगत आत्मा से उसके संबंध का विवरण शामिल है। व्यक्तिगत आत्मा एक एजेंट (कर्ता) है। जन्म और मृत्यु का तात्पर्य शरीर से है न कि आत्मा से, जिसकी (आत्मा की) कोई शुरुआत नहीं है। आत्मा शाश्वत है।

उपनिषदों में ब्रह्म के अनेक वर्णनों की चर्चा है। ब्रह्म संसार की उत्पत्ति, आधार और अंत, जगत का निमित्त और उपादान कारण है। वह बिना औजार के सृजन करता है। उसमें पवित्रता, उद्देश्य की सच्चाई, सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमानता आदि गुण हैं। भगवान (ब्रह्म) को मनुष्य के हृदय में निवास करने वाला माना जाता है, और मनुष्य को सर्वव्यापी ईश्वर को एक सीमित स्थान (हृदय) में रहने वाले के रूप में देखने की अनुमति है। चीजों का अंतिम आधार एक सर्वोच्च-आत्मा (परमात्मा: भगवान या ब्रह्म) है जो हर चीज का स्रोत है और निर्विवाद (unequivocal) आराधना और पूजा की पर्याप्त वस्तु है।

ब्रह्म (स्वयं अनुत्पादित और शाश्वत) संपूर्ण ब्रह्मांड का आदि-कारण है। प्रत्येक भौतिक तत्व ब्रह्म द्वारा निर्मित है। यदि, प्राथमिक तत्वों (elements and principles) की गतिविधि के माध्यम से, दुनिया का विकास होता है, तब भी यह ब्रह्म ही है जो शक्ति प्रदान करता है जिसके अभ्यास से विकास होता है। इस तरह ब्रह्म (भगवान) संसार के लिए सम्पूर्ण (सामग्री-रूपी और यन्त्र-रूपी) जिम्मेबार है। वेदांत सूत्र में कर्ता (Creator) और कृति (Creation), जैसे कि ब्रह्म (भगवान) और संसार, के संबंध की चर्चा की गई है।

(2) दूसरे अध्याय में ब्रह्म (भगवान या ईश्वर) पर संसार की निर्भरता और उससे क्रमिक विकास और उसमें पुनः समाहित होने का विवरण है। साथ ही आत्मा, उसके गुण, उसके ईश्वर और शरीर से कर्मानुसार संबंधों के बारे में दिलचस्प मनोवैज्ञानिक चर्चाएँ हैं।

(3) वेदांत सूत्र में तीसरा अध्याय ब्रह्म-विद्या या ब्रह्म-ज्ञान (दिव्य ज्ञान) प्राप्त करने के तरीकों और साधना पर चर्चा करता है। इसमें कई व्याख्यात्मक घटकों के साथ-साथ पुनर्जन्म और छोटी-मोटी मनोवैज्ञानिक और धार्मिक चर्चाओं का विवरण है।

यह बताया गया है कि नैतिक अनुशासन किसी व्यक्ति के लिए पूर्ण ज्ञान या ब्रह्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए उपयुक्त शरीर कैसे सुरक्षित कर सकता है। मोक्ष हर किसी के लिए संभव है, चाहे कृत्यों से या ईश्वर की कृपा से। इस प्रयोजन के लिए वेद (श्रुति) के नियम सहायक हैं। संसार की सक्रिय सेवा और त्याग को शास्त्रों से समान समर्थन मिलता है।

अज्ञानता से किया गया कार्य, लेकिन सभी कार्य नहीं, आध्यात्मिक धारणा या ज्ञान के उदय में बाधा डालते हैं। मुक्ति प्राप्त करने के बाद पृथ्वी पर जो भी स्वतंत्रता है, उस जीवनमुक्त अवस्था में भी कर्म (खास कर जरूरी कार्यों) का विधान है।

उपनिषदों के बाद, वेदांत सूत्र माध्यमिक (जैसे कि साधारण देव आदि) की पूजा की अनुमति देता है जो भक्तों को आशीर्वाद दे सकता है, हालांकि ये भी सर्वोच्च (ब्रह्म या भगवान या ईश्वर) द्वारा शासित होते हैं। वास्तविक (ब्रह्म या भगवान या ईश्वर)) प्रतीकों आदि (पूजा के साधनों, जैसे मूर्तियां आदि) से परे है और उनमें नहीं; जिन्हें, पूजा और प्रार्थना आदि में, साधारण व्यक्ति को सहायता के रूप में अनुमति दी जाती है।

सर्वोच्च (ब्रह्म या भगवान या ईश्वर) तो अव्यक्त (unmanifest) है, हालाँकि उसे समर्पण (सम्मान) की स्थिति में देखा जाता है। सर्व-श्रेष्ठ धर्म ईश्वर-प्राप्ति (God realization) है। व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य स्वयं (अहम् या बेदाग़ आत्मा) की उपलब्धि से है। ब्रह्म का ज्ञान उन कर्मों को समाप्त कर देता है जो सक्रिय नहीं हुए हैं, हालाँकि शरीर तब तक बना रहता है जब तक कि जो कर्म चालू हो गए हैं उनके प्रभाव समाप्त नहीं हो जाते।

(4) वेदांत सूत्र में चौथा अध्याय ब्रह्म-विद्या के फल से संबंधित है। इसमें विस्तार से मृत्यु के बाद आत्मा की गति-बिधि के सिद्धांत और मुक्ति का भी वर्णन किया गया है, और साथ में दो मार्गों (देवयान और पितृयान) -- देवताओं का प्रकाश का पथ (जिस द्वारा लौट कर कभी बापस नहीं आते) और पूर्बजों का अंधेरे का पथ (जिस द्वारा जन्म-मृत्यु का चक्कर बना रहता है) -- के बारे में बताया है।

इस बात का भी विवरण है कि व्यक्तिगत आत्मा देवयान (देवताओं या प्रकाश का मार्ग) के माध्यम से ब्रह्म तक कैसे पहुँचती है, जहाँ से कोई वापसी नहीं होती है। मुक्त आत्मा के लक्षणों का भी वर्णन किया गया है। मोक्ष प्राप्त करने पर मुक्त आत्मा को मिलने वाली लगभग अनंत शक्ति और ज्ञान का उल्लेख है, परन्तु इसके बाबजूद बह ब्रह्मांड को बनाने, शासन करने और विघटित करने की शक्ति नहीं रखती, जो सिर्फ ब्रह्म (ईश्वर) के पास है l

(ग) नैतिकता :

संसार ईश्वर की इच्छा (संकल्प) से है। यह उनकी लीला है, या खेल है l हालाँकि, इसका मतलब यह नहीं है कि उसने अपने आनंद के लिए, या अपनी प्रशंसा के लिए, या अपनी महानता के लिए पाप और पीड़ा पैदा की l

ईश्वर तो परम आनंदमय है, बह कैसे प्राणियों की पीड़ा में आनंदित हो सकता है। जो प्राणियों की पीड़ा में आनंदित होता है, वह कोई ईश्वर नहीं है। विविधता (या विविध परिस्थितियाँ) व्यक्तियों के कर्मों से निर्धारित होती है। ईश्वर मनुष्य के पिछले कार्यों को ध्यान में रखने तक सीमित है। ख़ुशी का असमान वितरण उस नैतिक व्यवस्था की अभिव्यक्ति (कार्यों का फल) है जो ईश्वर की इच्छा का संकेत करता है। इसलिए ब्रह्म (ईश्वर) न तो पक्षपाती है और न ही दयाहीन है, और न ही उसके पास आनंददायक स्वतंत्रता और गैर-जिम्मेदारी है।

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* सन्दर्भ: सुभाष सी. शर्मा, "वेदांत सूत्र और वेदांत," (27 जून, 2004) https://www.oocities.org/lamberdar/vedanta.html
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