हिन्दू धर्म और पूर्व मीमांसा का दार्शनिक सम्बन्ध (Hindu religion philosophically according to the Purva Mimamsa)
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हिन्दू धर्म और पूर्व मीमांसा का दार्शनिक सम्बन्ध (Hindu religion philosophically according to the Purva Mimamsa)
(1) प्रारम्भ :
मीमांसा (पूर्व मीमांसा* और उत्तर मीमांसा**) के दोनों दर्शनों (philosophies) का उद्देश्य है कि हिन्दू श्रुति (वेद) में पाया जाने बाला रहस्योद्घाटन (revelation) पूरी तरह दर्शन (Purva Mimamsa philosophy* & Uttara Mimamsa philosophy**) के अनुरूप हो l (टिप्पणी: यहां दिखाए तारांकन प्रतीक और * इस निबंध के संदर्भ के रूप में नीचे विस्तृत हैं)।
पूर्व मीमांसा* दोनों में से पहले (पुराने) होने के कारण तार्किक अर्थ आदि में विषयगत रूप से अनुष्ठानिक है, जबकि उत्तर मीमांसा** या वेदांत (वेद सारांश के रूप में) चीजों की सच्चाई के ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है।
पूर्व मीमांसा को आम तौर पर मीमांसा (अर्थ की पूछताछ या व्याख्या का) दर्शन (philosophy) कहा जाता है और यह अपने सिद्धांतों के आधार पर वेद पाठ / ग्रन्थ की व्याख्या में ध्वनि (नाम, खास कर) को ब्रह्म (भगवान) से सम्बंधित बताता है । याद रहे, उपनिषदों को छोड़कर संपूर्ण वेद धर्म या कर्तव्य के कृत्यों (acts) से संबंधित है, जिनमें प्रमुख हैं यज्ञ-कार्य और मन्त्र-सहित प्रसाद-अर्पण आदि ।
इस प्रकार पूर्व मीमांसा वेद के पहले या मंत्र (पूजा) भाग की जांच या व्याख्या है, और उत्तर मीमांसा बाद के या उपनिषद भाग की जांच है। ध्यान दें कि पवित्र संस्कारों का प्रदर्शन - जिसके साथ पूर्व मीमांसा संबंधित है - आम तौर पर मोक्ष की ओर ले जाने वाले ज्ञान की खोज की प्रस्तावना मानी जाती है।
पूर्व मीमांसा का उद्देश्य धर्म (व्यावहारिक रूप से धर्म-कर्तव्य) की प्रकृति की जांच करना है। यह आत्मा की वास्तविकता की पुष्टि करता है और इसे शरीर धारण करने वाला एक स्थायी हिस्सा मानता है, और जिसे (आत्मा को) व्यक्ति द्वारा किये कार्यों के परिणाम मिलते हैं। वेद से कर्तव्य / कार्यों का आदेश मिलता है, साथ ही उनके करने से लाभकारी परिणामों की जानकारी होती है।
मीमांसा में ज्ञान के तीन प्रमाण - धारणा, अनुमान और शब्द (साक्षी) - स्वीकार किए जाते हैं। मीमांसा के अनुसार वैदिक साक्ष्य (समर्थन) पर बहुत जोर दिया गया है, जिसका उद्देश्य धर्म की प्रकृति का पता लगाना है।
(2) अह्म / स्वयं (बेदाग़ आत्मा) :
वैदिक आदेश मृत्यु-पर्यन्त दूसरी दुनिया के लिए अर्जित फायदों की बात करते हैं। वे निरर्थक होंगे यदि कोई वास्तविक आत्मा शरीर के विनाश के बाद बच नहीं पाई। यही कारण है कि यज्ञ करने वाला आदमी अपने प्रयास से गैर-शारीरिक (शरीर रहित) आत्मा द्वारा मृत्यु के बाद लाभ प्राप्त कर सकता है, न कि शरीर, मांस और रक्त में मरने के बाद लाभ । मीमांसा का मानना है कि आत्मा और चेतना एक हैं, और इस कारण स्वयं (अह्म) को शरीर, इंद्रियों और समझ (बुद्धि) से अलग माना जाता है। शरीर स्वयं (अह्म) से परे किसी लक्ष्य को प्राप्त करने का एक साधन है, और इसलिए कहा जाता है कि शरीर उस आत्मा की सेवा करता है जो इसे निर्देशित करती और चलाती है।
अह्म "मैं" (स्वयं के रूप) द्वारा भावित होता है, जो सभी वस्तुनिष्ठ तत्वों से मुक्त है। आत्मा शरीर से भिन्न है। अह्म चेतना का विषय और वस्तु दोनों नहीं हो सकता। यह कर्ता है, भोक्ता है और अचेतन होते हुए भी सर्वव्यापी है। इस प्रकार यह शरीर, इंद्रियों और समझ से पूरी तरग अलग है, सभी अनुभूतियों में प्रकट होता है, और शाश्वत है। यद्यपि यह सर्वव्यापी है, पर यह अनुभव नहीं कर सकता कि दूसरे शरीर में क्या हो रहा है, क्योंकि यह केवल उसी का अनुभव कर सकता है जो आत्मा द्वारा पिछले कर्मों के कारण आधुनिक शारीरिक जीव में चल रहा है। यह अविनाशी है, क्योंकि यह किसी भी कारण से अस्तित्व में नहीं आता है।
ध्यान दें कि आत्मा स्वयं चेतना है, हालाँकि आत्माएँ अनेक हैं। चूँकि सभी आत्माएँ चेतना की प्रकृति की हैं, उपनिषद उन्हें एक ही बताते हैं। आत्मा चेतना है और साथ ही अनुभूति का आधार है, जो आत्मा का एक उत्पाद है। स्वयं (अह्म) के अस्तित्व का अनुमान "मैं" की धारणा से लगाया जाता है। अह्म अपने आप में प्रकट है, यद्यपि दूसरों के लिए अगोचर है।
(3) वास्तविकता का स्वभाव :
मीमांसा सिद्धांत वस्तुओं की वास्तविकता को मानता है, क्योंकि धारणा तभी उत्पन्न होती है जब वास्तविक वस्तुओं के साथ संपर्क हो। ब्रह्मांड वास्तविक है और केबल मानसिक-रूपी नहीं (अर्थात ब्रह्माण्ड / संसार सिर्फ मानसिक क्रिया का प्रतीक नहीं है)।
(4) नैतिकता :
धर्म सम्यक जीवन की योजना है। धर्म दिया गया आदेश है, और यह खुशी की ओर ले जाता है। जिन गतिविधियों के परिणामस्वरूप हानि या पीड़ा (अनर्थ) हो, वे धर्म नहीं हैं। इस प्रकार धार्मिक आदेशों का पालन न करने से न केवल सुख की हानि होती है, बल्कि कष्ट का भी सामना करना पड़ता है।
पूर्व मीमांसा की नैतिकता रहस्योद्घाटन (revelation) पर आधारित है। वैदिक आदेश धर्म का विवरण देते हैं। मीमांसा के अनुसार अच्छा कर्म वही है जो वेद (उपनिषद सहित श्रुति) द्वारा निर्धारित है। माना जाता है कि स्मृति ग्रंथों (परंपराओं या रीति-रिवाजों पर दस्तावेज़) के लिए जरूरी है कि उनसे संबंधित या मेल-जोल बाले श्रुति ग्रंथ (वेद) भी हो । यदि किसी स्मृति की मेल खाती कोई श्रुति नहीं है, तो यह इंगित करता है कि या तो संबंधित श्रुति समय के साथ खो गई है या विशेष स्मृति प्रामाणिक नहीं है। इसके अलावा, यदि स्मृतियाँ श्रुति के साथ विरोधाभास में हैं, तो ऐसी स्मृतियों की उपेक्षा की जानी चाहिए। जब यह पता चल जाए कि स्मृतियाँ स्वार्थवश रखी / लिखी गई हैं तो उन्हें फेंक देना चाहिए। स्मृतियों के बाद (या आगे) अच्छी मिसाल के लिए सत्पुरुषों या रीति-रिवाजों का चलन है। जिन कर्तव्यों की कोई शास्त्रीय स्वीकृति उपलब्द नहीं है, उन्हें उपयोगिता के सिद्धांतों पर समझाया गया है। यदि कोई कार्य किसी की प्राकृतिक प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया के रूप में किया जाता है, तो उसमें कोई लाभ नहीं है। मीमांसा के ये और अन्य नियम (पहलू) हिंदू कानून की व्याख्या के लिए उपयोग किए जाते हैं, जो वेदों या श्रुति के नियमों पर आधारित है, और जो सब वर्ण, जाति या व्यवसाय के लिए समान रूप से हैं l ध्यान दें, श्रुति आम तौर पर वेदों (ऋग वेद, यजुर वेद और साम वेद) और उपनिषदों (भगवद गीता सहित) को संदर्भित करती है।
इतिहास (पुराण और महाकाव्य) और स्मृतियों को सहायक साहित्य माना जाता है, इसलिए इन्हें श्रुति के साथ भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि श्रुति की बाकियों पर प्राथमिकता है।
मोक्ष प्राप्त करने के लिए, संध्या आदि जैसे नित्य कर्म (नियमित या दैनिक कर्तव्य) और नैमित्तिक कर्म (किसी विशेष अवसर पर कर्तव्य) का सुझाव है। ये पूरे दायित्व हैं, जिन्हें पूरा न करने पर पाप (प्रत्यय) लगता है।
विशेष लक्ष्य प्राप्त करने के लिए काम्य (वैकल्पिक) कर्म किये जाते हैं। इस प्रकार काम्य कर्मों को दूर रख कर, व्यक्ति स्वयं (अपने) को स्वार्थी उद्देश्यों से मुक्त कर लेता है, और यदि वह बिना अपेक्षा (नित्य और नैमित्तिक) कर्तव्यों का पालन करता है तो उसे मोक्ष प्राप्त होता है।
(5) मोक्ष :
मुक्ति को "पूरे धर्म और अधर्म के लुप्त होने के कारण शरीर (या जन्म-मरण) के चक्र की पूर्ण समाप्ति" के रूप में परिभाषित किया गया है। इस प्रकार मुक्ति में धर्म और अधर्म का पूर्ण लोप होना शामिल है, जिसका संचालन पुनर्जन्म का कारण है। व्यक्ति, यह जानते हुए कि संसार में सुख और दुख दोनों शामिल हैं और सुख-दुःख एक साथ मिश्रित हैं, अपना ध्यान मुक्ति की ओर लगाता है। वह निषिद्ध कार्यों के साथ-साथ निर्धारित कार्यों (जिनसे यहां या मृत्यु-पर्यन्त किसी प्रकार की खुशी मिलती हो) से बचने की कोशिश करता है। वह, प्रायश्चित द्वारा, पहले से संचित कर्मों को समाप्त करने की कोशिश भी करता है, और धीरे-धीरे संतोष और आत्म-नियंत्रण द्वारा और आत्मा के सच्चे ज्ञान से अपने शारीरिक अस्तित्व से छुटकारा पा लेता है। केवल ज्ञान ही बंधन से मुक्ति नहीं दिला सकता, क्योंकि मुक्ति तो सिर्फ ठीक कर्म (कार्यों) के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। ज्ञान प्रकृति-जनित गुण और दोष के संचय को रोकता है।
ध्यान दें कि फल की आशा में किया गया कर्म अगले जन्म की ओर ले जाता है। किसी व्यक्ति की पसंद और नापसंद उसके भविष्य के अस्तित्व को निर्धारित करती है। यदि वह मुक्ति पाना चाहता है तो उसे जन्म-मरण चक्र को तोड़ना होगा। मुक्ति सुख के साथ-साथ दुःख की समाप्ति पहुंचाती है। यह आनंद की स्थिति नहीं है, क्योंकि निर्गुण आत्मा को आनंद का कोई स्नेह नहीं l मोक्ष केवल आत्मा का प्राकृतिक रूप है, जो अपने आप में आत्मा की स्थिति का प्रतिनिधित्व करता है और सभी पीड़ाओं से मुक्त करता है ।
(6) भगवान (ब्रह्म) :
पूर्व मीमांसा में ब्रह्म का प्रतिनिधित्व करने वाले कई (वैदिक) नाम / देवता प्रस्तुत किए गए हैं, ताकि विभिन्न भक्तों और उनकी आवश्यकताओं, पूजाओं और प्राथनाओं के अनुसार निर्धारित प्रसाद (पूजा और प्रार्थना सहित) अर्पण हो सकें । हालाँकि इन देवताओं को किसी प्रकार की वास्तविकता के रूप में देखा या जाना जाता है, पर भक्त या प्रसाद अर्पण करने बाले से मंत्रों पर ध्यान देने के लिए और इसके इलाबा देवता के व्यक्तित्व (भौतिकता) से परे देखने का आग्रह किया गया है। इसलिए इस बात पर जोर दिया गया है कि देवताओं को प्रसाद चढ़ाना, साथ ही साथ उन्हें संबोधित करने के लिए दिए गए मंत्र (जो सत्य को विस्तृत करते हैं) पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए । यह भी ध्यान दें कि देवता की उपस्थिति में किसी भी व्यक्ति (मानव) की महिमा (प्रशंसा, पूजा) नहीं की जाए और ना ही कोई व्यक्ति (मानव) पूजा में देवता का स्थान ले।
ईश्वर (ब्रह्म) मूल रूप से जगत का निर्माता होने के साथ-साथ फलों का दाता भी है, जिसकी देवता द्वारा पूजा और प्रार्धना की जा सकती है परन्तु किसी व्यक्ति या मानव आदि की पूजा या प्रार्थना करके नहीं l
पूर्व मीमांसा में नैतिक पक्ष पर जोर दिया गया है। संसार की वास्तविकता को कर्म के निरंतर सिद्धांत के रूप में देखा जाता है। ईश्वर धार्मिकता या धर्म है।
……………………………
सन्दर्भ (* एवं ** द्वारा दर्शाया गया):
*सुभाष सी. शर्मा, "पूर्व मीमांसा दर्शन," 24 मई, 2004, http://www.oocities.org/lamberdar/purva_mimamsa.html
**सुभाष सी. शर्मा, "वेदांत सूत्र और वेदांत," 27 जून, 2004, https://www.oocities.org/lamberdar/venanta.html
मीमांसा (पूर्व मीमांसा* और उत्तर मीमांसा**) के दोनों दर्शनों (philosophies) का उद्देश्य है कि हिन्दू श्रुति (वेद) में पाया जाने बाला रहस्योद्घाटन (revelation) पूरी तरह दर्शन (Purva Mimamsa philosophy* & Uttara Mimamsa philosophy**) के अनुरूप हो l (टिप्पणी: यहां दिखाए तारांकन प्रतीक और * इस निबंध के संदर्भ के रूप में नीचे विस्तृत हैं)।
पूर्व मीमांसा* दोनों में से पहले (पुराने) होने के कारण तार्किक अर्थ आदि में विषयगत रूप से अनुष्ठानिक है, जबकि उत्तर मीमांसा** या वेदांत (वेद सारांश के रूप में) चीजों की सच्चाई के ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है।
पूर्व मीमांसा को आम तौर पर मीमांसा (अर्थ की पूछताछ या व्याख्या का) दर्शन (philosophy) कहा जाता है और यह अपने सिद्धांतों के आधार पर वेद पाठ / ग्रन्थ की व्याख्या में ध्वनि (नाम, खास कर) को ब्रह्म (भगवान) से सम्बंधित बताता है । याद रहे, उपनिषदों को छोड़कर संपूर्ण वेद धर्म या कर्तव्य के कृत्यों (acts) से संबंधित है, जिनमें प्रमुख हैं यज्ञ-कार्य और मन्त्र-सहित प्रसाद-अर्पण आदि ।
इस प्रकार पूर्व मीमांसा वेद के पहले या मंत्र (पूजा) भाग की जांच या व्याख्या है, और उत्तर मीमांसा बाद के या उपनिषद भाग की जांच है। ध्यान दें कि पवित्र संस्कारों का प्रदर्शन - जिसके साथ पूर्व मीमांसा संबंधित है - आम तौर पर मोक्ष की ओर ले जाने वाले ज्ञान की खोज की प्रस्तावना मानी जाती है।
पूर्व मीमांसा का उद्देश्य धर्म (व्यावहारिक रूप से धर्म-कर्तव्य) की प्रकृति की जांच करना है। यह आत्मा की वास्तविकता की पुष्टि करता है और इसे शरीर धारण करने वाला एक स्थायी हिस्सा मानता है, और जिसे (आत्मा को) व्यक्ति द्वारा किये कार्यों के परिणाम मिलते हैं। वेद से कर्तव्य / कार्यों का आदेश मिलता है, साथ ही उनके करने से लाभकारी परिणामों की जानकारी होती है।
मीमांसा में ज्ञान के तीन प्रमाण - धारणा, अनुमान और शब्द (साक्षी) - स्वीकार किए जाते हैं। मीमांसा के अनुसार वैदिक साक्ष्य (समर्थन) पर बहुत जोर दिया गया है, जिसका उद्देश्य धर्म की प्रकृति का पता लगाना है।
(2) अह्म / स्वयं (बेदाग़ आत्मा) :
वैदिक आदेश मृत्यु-पर्यन्त दूसरी दुनिया के लिए अर्जित फायदों की बात करते हैं। वे निरर्थक होंगे यदि कोई वास्तविक आत्मा शरीर के विनाश के बाद बच नहीं पाई। यही कारण है कि यज्ञ करने वाला आदमी अपने प्रयास से गैर-शारीरिक (शरीर रहित) आत्मा द्वारा मृत्यु के बाद लाभ प्राप्त कर सकता है, न कि शरीर, मांस और रक्त में मरने के बाद लाभ । मीमांसा का मानना है कि आत्मा और चेतना एक हैं, और इस कारण स्वयं (अह्म) को शरीर, इंद्रियों और समझ (बुद्धि) से अलग माना जाता है। शरीर स्वयं (अह्म) से परे किसी लक्ष्य को प्राप्त करने का एक साधन है, और इसलिए कहा जाता है कि शरीर उस आत्मा की सेवा करता है जो इसे निर्देशित करती और चलाती है।
अह्म "मैं" (स्वयं के रूप) द्वारा भावित होता है, जो सभी वस्तुनिष्ठ तत्वों से मुक्त है। आत्मा शरीर से भिन्न है। अह्म चेतना का विषय और वस्तु दोनों नहीं हो सकता। यह कर्ता है, भोक्ता है और अचेतन होते हुए भी सर्वव्यापी है। इस प्रकार यह शरीर, इंद्रियों और समझ से पूरी तरग अलग है, सभी अनुभूतियों में प्रकट होता है, और शाश्वत है। यद्यपि यह सर्वव्यापी है, पर यह अनुभव नहीं कर सकता कि दूसरे शरीर में क्या हो रहा है, क्योंकि यह केवल उसी का अनुभव कर सकता है जो आत्मा द्वारा पिछले कर्मों के कारण आधुनिक शारीरिक जीव में चल रहा है। यह अविनाशी है, क्योंकि यह किसी भी कारण से अस्तित्व में नहीं आता है।
ध्यान दें कि आत्मा स्वयं चेतना है, हालाँकि आत्माएँ अनेक हैं। चूँकि सभी आत्माएँ चेतना की प्रकृति की हैं, उपनिषद उन्हें एक ही बताते हैं। आत्मा चेतना है और साथ ही अनुभूति का आधार है, जो आत्मा का एक उत्पाद है। स्वयं (अह्म) के अस्तित्व का अनुमान "मैं" की धारणा से लगाया जाता है। अह्म अपने आप में प्रकट है, यद्यपि दूसरों के लिए अगोचर है।
(3) वास्तविकता का स्वभाव :
मीमांसा सिद्धांत वस्तुओं की वास्तविकता को मानता है, क्योंकि धारणा तभी उत्पन्न होती है जब वास्तविक वस्तुओं के साथ संपर्क हो। ब्रह्मांड वास्तविक है और केबल मानसिक-रूपी नहीं (अर्थात ब्रह्माण्ड / संसार सिर्फ मानसिक क्रिया का प्रतीक नहीं है)।
(4) नैतिकता :
धर्म सम्यक जीवन की योजना है। धर्म दिया गया आदेश है, और यह खुशी की ओर ले जाता है। जिन गतिविधियों के परिणामस्वरूप हानि या पीड़ा (अनर्थ) हो, वे धर्म नहीं हैं। इस प्रकार धार्मिक आदेशों का पालन न करने से न केवल सुख की हानि होती है, बल्कि कष्ट का भी सामना करना पड़ता है।
पूर्व मीमांसा की नैतिकता रहस्योद्घाटन (revelation) पर आधारित है। वैदिक आदेश धर्म का विवरण देते हैं। मीमांसा के अनुसार अच्छा कर्म वही है जो वेद (उपनिषद सहित श्रुति) द्वारा निर्धारित है। माना जाता है कि स्मृति ग्रंथों (परंपराओं या रीति-रिवाजों पर दस्तावेज़) के लिए जरूरी है कि उनसे संबंधित या मेल-जोल बाले श्रुति ग्रंथ (वेद) भी हो । यदि किसी स्मृति की मेल खाती कोई श्रुति नहीं है, तो यह इंगित करता है कि या तो संबंधित श्रुति समय के साथ खो गई है या विशेष स्मृति प्रामाणिक नहीं है। इसके अलावा, यदि स्मृतियाँ श्रुति के साथ विरोधाभास में हैं, तो ऐसी स्मृतियों की उपेक्षा की जानी चाहिए। जब यह पता चल जाए कि स्मृतियाँ स्वार्थवश रखी / लिखी गई हैं तो उन्हें फेंक देना चाहिए। स्मृतियों के बाद (या आगे) अच्छी मिसाल के लिए सत्पुरुषों या रीति-रिवाजों का चलन है। जिन कर्तव्यों की कोई शास्त्रीय स्वीकृति उपलब्द नहीं है, उन्हें उपयोगिता के सिद्धांतों पर समझाया गया है। यदि कोई कार्य किसी की प्राकृतिक प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया के रूप में किया जाता है, तो उसमें कोई लाभ नहीं है। मीमांसा के ये और अन्य नियम (पहलू) हिंदू कानून की व्याख्या के लिए उपयोग किए जाते हैं, जो वेदों या श्रुति के नियमों पर आधारित है, और जो सब वर्ण, जाति या व्यवसाय के लिए समान रूप से हैं l ध्यान दें, श्रुति आम तौर पर वेदों (ऋग वेद, यजुर वेद और साम वेद) और उपनिषदों (भगवद गीता सहित) को संदर्भित करती है।
इतिहास (पुराण और महाकाव्य) और स्मृतियों को सहायक साहित्य माना जाता है, इसलिए इन्हें श्रुति के साथ भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि श्रुति की बाकियों पर प्राथमिकता है।
मोक्ष प्राप्त करने के लिए, संध्या आदि जैसे नित्य कर्म (नियमित या दैनिक कर्तव्य) और नैमित्तिक कर्म (किसी विशेष अवसर पर कर्तव्य) का सुझाव है। ये पूरे दायित्व हैं, जिन्हें पूरा न करने पर पाप (प्रत्यय) लगता है।
विशेष लक्ष्य प्राप्त करने के लिए काम्य (वैकल्पिक) कर्म किये जाते हैं। इस प्रकार काम्य कर्मों को दूर रख कर, व्यक्ति स्वयं (अपने) को स्वार्थी उद्देश्यों से मुक्त कर लेता है, और यदि वह बिना अपेक्षा (नित्य और नैमित्तिक) कर्तव्यों का पालन करता है तो उसे मोक्ष प्राप्त होता है।
(5) मोक्ष :
मुक्ति को "पूरे धर्म और अधर्म के लुप्त होने के कारण शरीर (या जन्म-मरण) के चक्र की पूर्ण समाप्ति" के रूप में परिभाषित किया गया है। इस प्रकार मुक्ति में धर्म और अधर्म का पूर्ण लोप होना शामिल है, जिसका संचालन पुनर्जन्म का कारण है। व्यक्ति, यह जानते हुए कि संसार में सुख और दुख दोनों शामिल हैं और सुख-दुःख एक साथ मिश्रित हैं, अपना ध्यान मुक्ति की ओर लगाता है। वह निषिद्ध कार्यों के साथ-साथ निर्धारित कार्यों (जिनसे यहां या मृत्यु-पर्यन्त किसी प्रकार की खुशी मिलती हो) से बचने की कोशिश करता है। वह, प्रायश्चित द्वारा, पहले से संचित कर्मों को समाप्त करने की कोशिश भी करता है, और धीरे-धीरे संतोष और आत्म-नियंत्रण द्वारा और आत्मा के सच्चे ज्ञान से अपने शारीरिक अस्तित्व से छुटकारा पा लेता है। केवल ज्ञान ही बंधन से मुक्ति नहीं दिला सकता, क्योंकि मुक्ति तो सिर्फ ठीक कर्म (कार्यों) के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। ज्ञान प्रकृति-जनित गुण और दोष के संचय को रोकता है।
ध्यान दें कि फल की आशा में किया गया कर्म अगले जन्म की ओर ले जाता है। किसी व्यक्ति की पसंद और नापसंद उसके भविष्य के अस्तित्व को निर्धारित करती है। यदि वह मुक्ति पाना चाहता है तो उसे जन्म-मरण चक्र को तोड़ना होगा। मुक्ति सुख के साथ-साथ दुःख की समाप्ति पहुंचाती है। यह आनंद की स्थिति नहीं है, क्योंकि निर्गुण आत्मा को आनंद का कोई स्नेह नहीं l मोक्ष केवल आत्मा का प्राकृतिक रूप है, जो अपने आप में आत्मा की स्थिति का प्रतिनिधित्व करता है और सभी पीड़ाओं से मुक्त करता है ।
(6) भगवान (ब्रह्म) :
पूर्व मीमांसा में ब्रह्म का प्रतिनिधित्व करने वाले कई (वैदिक) नाम / देवता प्रस्तुत किए गए हैं, ताकि विभिन्न भक्तों और उनकी आवश्यकताओं, पूजाओं और प्राथनाओं के अनुसार निर्धारित प्रसाद (पूजा और प्रार्थना सहित) अर्पण हो सकें । हालाँकि इन देवताओं को किसी प्रकार की वास्तविकता के रूप में देखा या जाना जाता है, पर भक्त या प्रसाद अर्पण करने बाले से मंत्रों पर ध्यान देने के लिए और इसके इलाबा देवता के व्यक्तित्व (भौतिकता) से परे देखने का आग्रह किया गया है। इसलिए इस बात पर जोर दिया गया है कि देवताओं को प्रसाद चढ़ाना, साथ ही साथ उन्हें संबोधित करने के लिए दिए गए मंत्र (जो सत्य को विस्तृत करते हैं) पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए । यह भी ध्यान दें कि देवता की उपस्थिति में किसी भी व्यक्ति (मानव) की महिमा (प्रशंसा, पूजा) नहीं की जाए और ना ही कोई व्यक्ति (मानव) पूजा में देवता का स्थान ले।
ईश्वर (ब्रह्म) मूल रूप से जगत का निर्माता होने के साथ-साथ फलों का दाता भी है, जिसकी देवता द्वारा पूजा और प्रार्धना की जा सकती है परन्तु किसी व्यक्ति या मानव आदि की पूजा या प्रार्थना करके नहीं l
पूर्व मीमांसा में नैतिक पक्ष पर जोर दिया गया है। संसार की वास्तविकता को कर्म के निरंतर सिद्धांत के रूप में देखा जाता है। ईश्वर धार्मिकता या धर्म है।
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सन्दर्भ (* एवं ** द्वारा दर्शाया गया):
*सुभाष सी. शर्मा, "पूर्व मीमांसा दर्शन," 24 मई, 2004, http://www.oocities.org/lamberdar/purva_mimamsa.html
**सुभाष सी. शर्मा, "वेदांत सूत्र और वेदांत," 27 जून, 2004, https://www.oocities.org/lamberdar/venanta.html
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