जाति (या वर्ण) आरम्भ में: "वैदिक व्यवसाय (हिंदू जातियां: ब्राह्मिण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) आनुवंशिकता (जन्म) पर आधारित नहीं थे ... Vedic vocations (Hindu castes: brahmin, kshatriya, vaishya and shudra) were not related to heredity (birth)"
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जाति (या वर्ण) आरम्भ में: "वैदिक व्यवसाय (हिंदू जातियां: ब्राह्मिण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) आनुवंशिकता (जन्म) पर आधारित नहीं थे ... Vedic vocations (Hindu castes: brahmin, kshatriya, vaishya and shudra) were not related to heredity (birth)"
जैसा कि भगवद गीता (अध्याय 4 - श्लोक 13) में दर्शाया गया है कि आरम्भ काल में जाति व्यवस्था व्यवसायों (कार्यों) से संबदित थी और उसकी चार सामान्य श्रेणियां (वर्ण या जाति: ब्राह्मिण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) गुण (योग्यता) और कर्म (कार्य) पर आधारित होती थीं, जैसा की आजकल होता है नौकरियां में -- योग्यता (या गुण) और कार्य (या कर्म) के अनुसार।
उपर्युक्त प्रारंभिक व्यावसायिक वर्गीकरण, जो योग्यता (गुण) और कार्य (कर्म) पर आधारित और तार्किक था, बाद में विकृत हो गया और जन्म / आनुवंशिकता के आधार पर शुरू हो गया l ऐसा तब हुआ, जब नई पीढ़ियों के बच्चे अपने माता-पिता का काम और कारोबार सँभालने लगे ताकि उन्हें व्यवसाय (नौकरी आदि) और पैसा कमाने में आसानी रहे और बे बिना झंझटों के अन्य (अपरिचित और अपने परिवार के बाहर) के व्यवसायों को सीखने और अपनाने में मेहनत और समय बर्बाद न करें ; परन्तु इसका बुरा नतीजा यह हुआ कि वेदों के बाद के समय में समाज का स्तरीकरण जाति / वर्ण के आधार पर शुरू हो गया ।
याद रहे, प्राचीन समाज (जनजाति या विशा) के लोगों ने शुरू में वर्ण (व्यवसाय श्रेणियों) को केवल कार्यात्मक रूप से समझा और रखा था। वैश्य (विशा या जनजाति से संबंधित लोग) सब विशा (समाज) का अंग थे, जिनमें किसान, लकड़ी का काम करने वाले, चमड़े का काम करने वाले आदि सब शामिल थे l इसके अलावा, ब्राह्मिण, जो विशा का ही हिस्सा थे, उनका काम जनजाति (विशा) के लिए बोलना, वेद (संकलित ज्ञान) पढ़ना और प्रसारित करना, और पुजारी के रूप में जिम्मेवारी निभाना । इसी प्रकार, क्षत्रिय, जो विशा का नेतृत्व और रक्षा करने की क्षमता रखते, विशा (समाज) की सुरक्षा और प्रशासन के लिए जिम्मेदार थे ।
ऊपर लिखे जनजाति या समाज के तीन अंगों (वैश्य, ब्राह्मिण और क्षत्रिय) के अलावा जनजाति (विशा) में नए लोग या प्रवासी (जिन्हें शूद्र कहा जाता था) भी कभी-कभी आते थे, जो अधिकतर बाहर से पैदल चल कर आते या लाए जाते थे। शूद्र, आधुनिक नए प्रवासियों की तरह, शुरू में विशा (या जनजाति) के मूल निवासियों (ब्राह्मिण, वैश्य और क्षत्रिय) को मदद या सेवाएँ प्रदान करके अपना जीवन चलाते थे, लेकिन समय बीतने पर वे (शूद्र या नवागंतुक) भी जनजाति (विशा) में पूरी तरह से घुलमिल और एकीकृत हो जाते और मूल निवासियों (ब्राह्मिण, क्षत्रिय, वैश्य) का काम करते और समाज का अटूट अंग बन जाते थे l
ऋग्वेद (पुस्तक 10: श्लोक 90.12) में विशा (प्राचीन समाज) का कार्यात्मक रूप से वर्णन करने के लिए मानवीय अंगों का उदाहरण दिया था, जैसे कि ब्राह्मिण (वेद सीखने, विशा के लिए बोलने और उसके पुजारी के रूप में कार्यकर्ता) विशा (समाज) का प्रवक्ता (मुंह) था, क्षत्रिय विशा की शक्ति (बाहें) था, वैश्य विशा की नींव (जांघें) था, और शूद्र (नवागंतुक) विशा में पैदल (पैरों पर) चल कर विशा (समाज) का हिस्सा बना था।
इससे स्पष्ट है कि शुरू में लोगों को आनुवंशिकता और जन्म के बजाय गुण (योग्यता / क्षमता) और कर्म (कार्य) के आधार पर विभिन्न व्यवसायों और जीवन शैली को अपनाना प्रचलित था। यहाँ, नीचे के लेख में, प्राचीन काल में लोगों द्वारा अपने मूल (जन्म) से अलग व्यवसाय और जीवन शैली चुनने के कुछ उदाहरण दिए गए हैं: सत्यकाम (जिसका वर्णन छांदोग्य उपनिषद में आता है) और वाल्मिकी (रामायण के लेखक) शुरू में शूद्र श्रेणी से थे, लेकिन उन्होंने बाद में संस्कृत और वेद सीखे और ब्राह्मिण का ब्यबसाय अपनाया और अंततः महाऋषियों की उपाधि प्राप्त की।
महाभारत की शूद्र महिला सत्यवती ने एक क्षत्रिय (हस्तिनापुर के राजा शांतनु) से शादी की और हस्तिनापुर की रानी बनी । इसके अलावा, सत्यवती और उसकी बहुओं ने अपने पति (राजा शांतनु और उसके पुत्र जो सत्यवती के बेटे थे) के मरने के बाद विधवा होने पर भी 'सती' (आत्मदाह) द्वारा आत्महत्या नहीं की l
संदर्भ: सुभाष सी. शर्मा, "वैदिक व्यवसाय (हिंदू जातियां) आनुवंशिकता (जन्म) पर आधारित नहीं थे l" (वर्ष 2001): "Vedic vocations (Hindu castes) were not related to heredity (birth)"
https://www.oocities.org/lamberdar/_caste.html
उपर्युक्त प्रारंभिक व्यावसायिक वर्गीकरण, जो योग्यता (गुण) और कार्य (कर्म) पर आधारित और तार्किक था, बाद में विकृत हो गया और जन्म / आनुवंशिकता के आधार पर शुरू हो गया l ऐसा तब हुआ, जब नई पीढ़ियों के बच्चे अपने माता-पिता का काम और कारोबार सँभालने लगे ताकि उन्हें व्यवसाय (नौकरी आदि) और पैसा कमाने में आसानी रहे और बे बिना झंझटों के अन्य (अपरिचित और अपने परिवार के बाहर) के व्यवसायों को सीखने और अपनाने में मेहनत और समय बर्बाद न करें ; परन्तु इसका बुरा नतीजा यह हुआ कि वेदों के बाद के समय में समाज का स्तरीकरण जाति / वर्ण के आधार पर शुरू हो गया ।
याद रहे, प्राचीन समाज (जनजाति या विशा) के लोगों ने शुरू में वर्ण (व्यवसाय श्रेणियों) को केवल कार्यात्मक रूप से समझा और रखा था। वैश्य (विशा या जनजाति से संबंधित लोग) सब विशा (समाज) का अंग थे, जिनमें किसान, लकड़ी का काम करने वाले, चमड़े का काम करने वाले आदि सब शामिल थे l इसके अलावा, ब्राह्मिण, जो विशा का ही हिस्सा थे, उनका काम जनजाति (विशा) के लिए बोलना, वेद (संकलित ज्ञान) पढ़ना और प्रसारित करना, और पुजारी के रूप में जिम्मेवारी निभाना । इसी प्रकार, क्षत्रिय, जो विशा का नेतृत्व और रक्षा करने की क्षमता रखते, विशा (समाज) की सुरक्षा और प्रशासन के लिए जिम्मेदार थे ।
ऊपर लिखे जनजाति या समाज के तीन अंगों (वैश्य, ब्राह्मिण और क्षत्रिय) के अलावा जनजाति (विशा) में नए लोग या प्रवासी (जिन्हें शूद्र कहा जाता था) भी कभी-कभी आते थे, जो अधिकतर बाहर से पैदल चल कर आते या लाए जाते थे। शूद्र, आधुनिक नए प्रवासियों की तरह, शुरू में विशा (या जनजाति) के मूल निवासियों (ब्राह्मिण, वैश्य और क्षत्रिय) को मदद या सेवाएँ प्रदान करके अपना जीवन चलाते थे, लेकिन समय बीतने पर वे (शूद्र या नवागंतुक) भी जनजाति (विशा) में पूरी तरह से घुलमिल और एकीकृत हो जाते और मूल निवासियों (ब्राह्मिण, क्षत्रिय, वैश्य) का काम करते और समाज का अटूट अंग बन जाते थे l
ऋग्वेद (पुस्तक 10: श्लोक 90.12) में विशा (प्राचीन समाज) का कार्यात्मक रूप से वर्णन करने के लिए मानवीय अंगों का उदाहरण दिया था, जैसे कि ब्राह्मिण (वेद सीखने, विशा के लिए बोलने और उसके पुजारी के रूप में कार्यकर्ता) विशा (समाज) का प्रवक्ता (मुंह) था, क्षत्रिय विशा की शक्ति (बाहें) था, वैश्य विशा की नींव (जांघें) था, और शूद्र (नवागंतुक) विशा में पैदल (पैरों पर) चल कर विशा (समाज) का हिस्सा बना था।
इससे स्पष्ट है कि शुरू में लोगों को आनुवंशिकता और जन्म के बजाय गुण (योग्यता / क्षमता) और कर्म (कार्य) के आधार पर विभिन्न व्यवसायों और जीवन शैली को अपनाना प्रचलित था। यहाँ, नीचे के लेख में, प्राचीन काल में लोगों द्वारा अपने मूल (जन्म) से अलग व्यवसाय और जीवन शैली चुनने के कुछ उदाहरण दिए गए हैं: सत्यकाम (जिसका वर्णन छांदोग्य उपनिषद में आता है) और वाल्मिकी (रामायण के लेखक) शुरू में शूद्र श्रेणी से थे, लेकिन उन्होंने बाद में संस्कृत और वेद सीखे और ब्राह्मिण का ब्यबसाय अपनाया और अंततः महाऋषियों की उपाधि प्राप्त की।
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